Friday, September 7, 2012
मनमोहन सरकार : न शासन, न प्रशासन
कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार अब ठहर-सी गई है। वह न तो राजनैतिक फैसले लेने की स्थिति में है और न ही सामान्य प्रशासकीय काम कर पा रही है। यह स्थिति चाहे गठबंधन की मजबूरियों के कारण हो अथवा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बेहद कमजोर होने के कारण, लेकिन इसमें दो मत नहीं कि केंद्र की सरकार हर मोर्चे पर फ्लाप होती जा रही है।
मिसाल के तौर पर सरकार के सामान्य प्रशासकीय कार्यों के निष्पादन में विलंब होने से बुनियादी ढांचे का निर्माण अवरूद्ध है। भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) का गठन भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण अधिनियम, 1988 के तहत किया गया था। यह प्राधिकरण राष्ट्रीय राजमार्गों के विकास, रख-रखाव तथा प्रबंधन के लिए उत्तरदायी है। ऐसे में देश के महत्वपूर्ण बुनियादी ढ़ांचे का निर्माण में इस प्राधिकरण की भूमिका के महत्व का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। पर सरकार चेयरमैन का पद खाली रखकर इस महत्वपूर्ण प्राधिकरण को कोई दो वर्षों तक पंगु बनाए रही। अनिर्णय के कारण ऐसी स्थिति बनी।
तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) आजकल चर्चा में है। किसी उपलब्धि के कारण नहीं, बल्कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की खराब टिप्पणियों के कारण। सीएजी का मानना है कि ओएनजीसी अपने अन्वेषण क्रियाकलाप पर वांछित जोर नहीं दिया। कंपनी के पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन होते हुए भी उसने अन्वेषण संबंधी योजनाओं के विस्तार में सुस्ती बरती, जिसके कारण उत्पादन कम होता गया। तेल और प्राकृतिक गैस के मामले में विदेशी निर्भरता कम करने के लिहाज से ओएनजीसी के महत्व को समझा जा सकता है। लेकिन सरकार को शायद ही इसकी चिंता है। तभी तो ओएनजीसी के चेयरमैन का पद लगभग सवा साल से रिक्त है। ऐसे में बिना इंजन की गाड़ी तो ऐसे ही चलेगी ना।
देश में पनबिजली निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाने वाला सार्वजनिक क्षेत्र का एनएचपीसी लिमिटेड लगभग एक साल से प्रभारी चेयरमैन के भरोसे है। इसका प्रभाव चालू वित्तवर्ष की अप्रैल-जून तिमाही में देखने को मिला, जब इसका शुद्ध लाभ 15 प्रतिशत घटकर 670 करोड़ रुपये हो गया। एनएचपीसी की स्थापित क्षमता 5,100 मेगावाट से अधिक है। चालू वित्तवर्ष में कंपनी की कुल क्षमता में 1,200 मेगावाट का इजाफा करने का लक्ष्य निर्धारित है और 21,000 मेगावाट से अधिक क्षमता की परियोजनाएं क्रियान्वियन के विभिन्न चरणों में हैं। ऐसे में चेयरमैन की नियुक्ति के मामले में सरकार के अनिर्णय के कारण पनबिजली परियोजनाएं अधर में लटक सकती हैं या फिर अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाएंगे।
यूनिट ट्रस्ट आफ इंडिया (यूटीआई) देश का एक महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थान है। सन् 1963 में संसद में पारित एक अध्यादेश के जरिए बने यूटीआई एक्ट के बाद अस्तित्व में आए इस वित्तीय संस्थान के अब तक के इतिहास में पहली बार इसके चेयरमैन का पद पिछले 19 महीनों से खाली है। यह पद श्री यूके सिन्हा को सेबी का चेयरमैन बनाए जाने के कारण रिक्त हुआ था। पर सरकार अब तक इस स्थान को नहीं भर पाई है। इससे यूटीआई का कामकाज प्रभावित है। इसे एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। आयकर विभाग ने लोगों को पैन कार्ड समय पर उपलब्ध कराने के लिए यूटीआई के साथ करार किया था। लेकिन 65 रुपए खर्च करके भी आयकर रिटर्न फाइल करने के इच्छुक लोगों को पैन कार्ड नहीं मिल पा रहा है। फार्म भरने के 15 दिनों के अंदर पैन कार्ड देने का यूटीआई का वादा सिर्फ कागजों तक सीमित रह गया है। यूटीआई अधिकारी खुद मानते हैं कि बड़ी तादाद में आवेदन पत्र आने के कारण 15 दिन की समय सीमा का वादा पूरा नहीं हो पा रहा है।
कई अन्य स्वायत्त तथा सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में भी ऐसे उदाहरण भर पड़े हैं। नीतिगत मामलों में गठबंधन की मजबूरी समझी जा सकती है। मसलन, केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले साल 24 नवंबर को खुदरा कारोबार में एफडीआई को मंजूरी दे दी थी। पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अगुआई वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के विरोध के कारण सरकार इसे अमल में नहीं ला सकी है। इसी तरह सिविल एवियशन के क्षेत्र में भी विदेशी पूंजी निवेश का मामला अटक गया है। पर प्रशासकीय कार्यों का निष्पादन न कर पाना किस मजबूरी का हिस्सा है? सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों एनएचपीसी अथवा ओएनजीसी के चेयरमैन पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन करने से क्या किसी ने रोका?
सच तो यह है कि यह सरकार अब प्रशासकीय कार्यों के मामलों में अनिर्णय की स्थिति में तो है ही, नीतिगत मामलों में भी खुद ही अंतर्विरोधों से घिरी हुई दिख रही है। इसका नजारा हाल ही देखने को मिला। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी की प्रतिष्ठा से जुड़े भूमि अधिग्रहण विधेयक को कांग्रेसी मंत्रियों के अंतर्विरोधों के कारण पुनर्विचार के लिए मंत्रिसमूह [जीओएम] के गठन का फैसला सुनाकर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। यह विधेयक दूसरी बार जीओएम को सौंपा गया है। कहते हैं कि कैबिनेट की बैठक में विधेयक पर सरकार के पांच बड़े मंत्रियों शहरी विकास मंत्री कमलनाथ, सड़क परिवहन और राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्री सीपी जोशी, वाणिज्य व उद्योग मंत्री आनंद शर्मा, कारपोरेट मामले व ऊर्जा मंत्री वीरप्पा मोइली तथा नागरिक उड्डयन मंत्री रालोद अध्यक्ष अजित सिंह ने सख्त एतराज जताया।
यूपीए-2 की सरकार एक तरफ भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों को लेकर बेदम होती दिख रही है। वहीं दूसरी तरफ आर्थिक मोर्चे पर भी उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं माना जा सकता। वित्तीय वर्ष 2011-12 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 4.6 फीसदी से बढ़कर 5.9 फीसदी हो गया। जबकि बजट में सकल घरेलू उत्पाद का आठ फीसदी से ज्यादा विकास की गुलाबी तस्वीर दिखाई गई थी। इन तमाम स्थितियों व परिस्थितियों के बीच कोयला खानों के आवंटन के सवाल पर इस पूरे सत्र में संसद में जिस तरह का नजारा रहा उसको देखते हुए हिंदी के विद्रोही कवि और गजलकार दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां प्रासंगिक लगती हैं, “अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।”
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