Monday, September 10, 2012

निजीकरण की ओर बढ़ता भारत का कोयला उद्योग

भारतीय कोयला उद्योग के निजीकरण के लिए तमाम विसातें बिछाई जा चुकी हैं। एक लंबे अरसे से इस दिशा में कोशिशें की जा रही थीं। अब लगता है कि आर्थिक नीतियों के मामले में प्रकारांतर से समान राय रखने वाले देश के प्रमुख राजनीतिक दलों को इसमें कामयाबी मिल चुकी है। देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपने-अपने तरीकों से ऐसी व्यवस्था कर दी है कि अब देश में कोयला उद्योग के निजीकरण की रफ्तार सरपट दौड़ने लगेगी। इसके लिए बड़ी चालाकी से देश की जनता के गले यह बात उतार दी गई कि नीलामी के रास्ते ही सही, कोयला खानें निजी हाथों में सौंपा जाना राष्ट्रहित में है। इसके पहले दो दशकों के दौरान दो काम किए गए थे। पहला यह कि कोल इंडिया लिमिटेड और उसकी अनुषँगी इकाइयों को पंगु बनाकर यह स्थापित किया गया कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोयला कंपनियां कोयले के मामले में देश की जरूरतें पूरी करने में सक्षम नहीं हैं। लिहाजा विदेशी कोयले से भारतीयत उद्योगों की जरूरतें पूरी करने की मजबूरी है। बाद में कोयले के मामले में विदेशी निर्भरता कम करने की आड़ में कैप्टिव उपयोग के लिए कोयला खानें देशी उद्योगों को देने की नीति बनाई गई। ...और धीरे से इस नीति को और लचीला बनाकर अनेक मामलों में इस नीति की भी अनदेखी करके चहेती कंपनियों को उपकृत कर दिया गया। यह दीगर है कि इस तरह रेवड़ियां बांट देने से कोयले के आयात में कोई कमी नहीं आई है। यह बात कभी मुद्दा बनती, उसके पहले ही सरकार ने 29 बिजली संयंत्रों के साथ कोयला आपूर्ति के लिए इंधन आपूर्त्ति करार (एफएसए) करके एक और चाल चल दी। वह यह कि विद्युत संयंत्रों को उनकी कुल जरूरतों की 65-80 फीसदी तक कोयले की आपूर्ति कोल इंडिया लिमिटेड करेगा। इस समझौते में एक महत्वपूर्ण बात जोड़ी गई कि जरूरत पड़ने पर कोल इंडिया लिमिटेड कोयले का आयात करके भी करार के अनुरूप बिजली संयंत्रों की मांगें पूरी करेगा। इतना ही नहीं। करार में एक बात और जोड़ी गई कि कोल इंडिया लि. ने बिजली संयंत्रों की जरूरतें पूरी नहीं की तो दंड का भीगीदार भी होगा। बात सुनने में कितनी अच्छी लगती है। लगे भी क्यों नहीं। देश में कोयला आधारित 80 बिजली संयंत्र होने के बावजूद बिजली संकट गंभीर है। ग्रिड तक फेल कर जा रहा है। सर्वत्र यही रोना है कि कोयले की कमी विद्युत उत्पादन में बाधक बन रही है। जाहिर है कि इस बाधा को दूर करने के लिए सरकार का कोई भी कदम जनता को भाएगा ही। लिहाजा एक तरफ कोयले का आयात बड़े पैमान पर किया जा रहा है और दूसरी तरफ कोयला खदानों का आवंटन भी किया जाता रहा है। सरकार ने बड़े गर्व से अपने अनुमान को प्रचारित भी किया कि सन् 2017 में 194 मिलियन टन कोयले का आयात करना होगा। इन सवालों पर चर्चा तक बंद कर दी गई कि हम कोल वाशरियों का निर्माण के मामले में लापरवाह क्यों बने हुए हैं? जब हम कोल इंडिया विदेश बनाकर विदेशों में कोयला खनन की संभावना तलाश रहे हैं तो अपने देश में नई खानें विकसित क्यों नहीं कर रहे? मौजूदा कोयला खदानों का उसकी क्षमता के अनुरूप दोहन क्यों नहीं कर रहे? ऐसा क्यों होता है कि सीएमपीडीआई, जो कोल इंडिया लि. की ही अनुषंगी इकाई है, द्वारा कोयला खनन के लिए निर्धारित लक्ष्यों इतर कम लक्ष्य निर्धारित करके तथा अपने द्वारा तय मुकाम को हासिल करके अपन पीठ खुद थपथपा लेते हैं और निजी कंपनियों को आवंटित कोयला खानों से कोयले का उत्पादन क्यों नहीं हो रहा है? पक्ष-विपक्ष किसी तरफ इस बात को गंभीर नहीं माना गया कि बीते केवल छह सालों में कोयले का आयात कुल जरूरतों का 6 फीसदी से बढ़कर 13 फीसदी हो गया है। गंभीर बात यह है कि अब विद्युत संयंत्रों को यह निर्देश है कि उन्हें देश के अपेक्षाकृत घटिया कोयले में आयातित बेहतर कोयले की कम से कम 20 फीसदी मात्रा मिलानी होगी। ताकि प्रदूषण नियंत्रण में रहे। क्या इस व्यवस्था में साजिश की बूं नहीं आ रही? यदि अपने देश में पर्याप्त कोल वाशरियां होतीं तो क्या विदेश की कथित बेहत कोयले की मिलावट की बाध्यता होती? सन् 1971 से 1973 के बीच हुए कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद लगातार राष्ट्रीयकृत कोयला उद्योग को सरकारी स्तर पर कमजोर किया जाता रहा तो उद्योग जगत यह साबित करने में लगा रहा कि कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण का मकसद पूरा नहीं हो पाया। लेकिन कैप्टिव उपयोग के लिए कोयला ब्लाकों की नीलामी पर एक माहौल बनाकर सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उद्योग के निजीकरण का रास्ता खोल दिया गया है। दरअसल सन् 2000 में भाजपा की अगुआई वाली केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार ने कोयला राष्ट्रीयकरण संशोधन विधेयक 2000 संसद में पेश किया था। लेकिन यह पारित नहीं हो सका। देश भर की ट्रेड यूनियनों ने कोयला उद्योग के निजीकरण के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और इस तरह मामला अटक गया था। कोल माइंस रेगुलेशन एक्ट 1857 की मूल भावनाओं के विपरित यह व्यवस्था दी गई है कि जो ऊंची बोली लगाएगा उसे ही कोयला ब्लाक मिलेगा। मतलब साफ है कि कोई भी उद्योगपति अपने उद्योग की स्थापना के लिए पूंजीनिवेश की बात तभी सोच पाएगा जब वह बोली के आधार पर कोयला ब्लाक लेने में कामयाब हो जाएगा। वरना उद्योग लगाने के बाद कोई कंपनी बोली के आधार पर कोयला खदान लेने में कामयाब नहीं हो पाया तो उसका तो बैंड बज जाएगा। ये दोनों ही स्थितियां औद्योगीकरण के मार्ग में बाधक बन सकती हैं। होना यह चाहिए था कि सरकार कोयला ब्लाकों के रिजर्व, कोयले के बाजार भाव और मुद्रा स्फीति को ध्यान में रखकर कोयला ब्लाकों का रिजर्व प्राइस तय करती। या फिर जिन कंपनियों को कोयला ब्लाक दिए जा चुके हैं, सरकार उनसे कहती कि वे सरकार द्वारा निर्धारित दर पर ही बिजली बेच सकती हैं। लेकिन कथित उदारीकरण की पक्षधऱ सरकार ने ऐसा करने के बदले बिजली की दर नियंत्रित किए बिना औने-पौने दाम पर खदानों का आवंटन चहेती कंपनियों को कर दिया। दूसरी तरफ अनेक जरूरतमंद कंपनियों को कोयला आयात के लिए मजबूर भी किया जा रहा है। सन् 2004-05 में कुल 20 मिलियन टन कोयले का आयात किया गया था। बीते वित्तीय वर्ष में यह आंकड़ा बढ़कर 84 मिलियन टन पहुंच चुका है। देश में जितने भी विधेयक बनाए जाते हैं, उन पर संसद की स्थाई समिति में चर्चा होती है। स्थाई समिति में सभी पार्टियों के सांसद होते हैं। जाहिर है कि सबकी सहमति के बिना कोई विधेयक अनुमोदित नहीं हो सकता। कुछ मामलों में कुछ सांसद असहमति जताते हैं तो यह रिकार्ड में होता है। कोयला ब्लाकों के आवंटन के मामले में अपनाई गईं नीतियों का उचित फोरम में प्रमुख राजनीतिक दलों ने विरोध किया, ऐसा देखने को नहीं मिला। यह नीतियों में समानता का ही द्योतक है। ऐसा प्रतीत होता है कि देश के बड़े औद्योगिक घराने चाहते हैं कि कोयला ब्लाकों की नीलामी हो। इसकी वजह यह है कि नीलामी के खेल में छोटे उद्योगपति ऐसे ही बाहर हो जाएगें। दूसरी बात यह है कि सरकार को वास्तविक चुनौतियां बड़े औद्योगिक घराने ही दे पाएँगे, जिससे नीति निर्धारकों को औद्योगिक घरानों के अनुरूप नीति बनाने में मदद मिलेगी। इसलिए न तो बड़े औद्योगिक घराने और न ही सरकार या विपक्ष कोयला ब्लाकों की कीमतें बाजार दर से तय करने के पक्ष में हैं। इन तमाम तथ्यों से स्पष्ट है कि देश के सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उद्योग को किस दिशा में ढ़केला जा रहा है।  

Friday, September 7, 2012

मनमोहन सरकार : न शासन, न प्रशासन

कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार अब ठहर-सी गई है। वह न तो राजनैतिक फैसले लेने की स्थिति में है और न ही सामान्य प्रशासकीय काम कर पा रही है। यह स्थिति चाहे गठबंधन की मजबूरियों के कारण हो अथवा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बेहद कमजोर होने के कारण, लेकिन इसमें दो मत नहीं कि केंद्र की सरकार हर मोर्चे पर फ्लाप होती जा रही है। मिसाल के तौर पर सरकार के सामान्य प्रशासकीय कार्यों के निष्पादन में विलंब होने से बुनियादी ढांचे का निर्माण अवरूद्ध है। भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) का गठन भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण अधिनियम, 1988 के तहत किया गया था। यह प्राधिकरण राष्ट्रीय राजमार्गों के विकास, रख-रखाव तथा प्रबंधन के लिए उत्तरदायी है। ऐसे में देश के महत्वपूर्ण बुनियादी ढ़ांचे का निर्माण में इस प्राधिकरण की भूमिका के महत्व का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। पर सरकार चेयरमैन का पद खाली रखकर इस महत्वपूर्ण प्राधिकरण को कोई दो वर्षों तक पंगु बनाए रही। अनिर्णय के कारण ऐसी स्थिति बनी। तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) आजकल चर्चा में है। किसी उपलब्धि के कारण नहीं, बल्कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की खराब टिप्पणियों के कारण। सीएजी का मानना है कि ओएनजीसी अपने अन्वेषण क्रियाकलाप पर वांछित जोर नहीं दिया। कंपनी के पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन होते हुए भी उसने अन्वेषण संबंधी योजनाओं के विस्तार में सुस्ती बरती, जिसके कारण उत्पादन कम होता गया। तेल और प्राकृतिक गैस के मामले में विदेशी निर्भरता कम करने के लिहाज से ओएनजीसी के महत्व को समझा जा सकता है। लेकिन सरकार को शायद ही इसकी चिंता है। तभी तो ओएनजीसी के चेयरमैन का पद लगभग सवा साल से रिक्त है। ऐसे में बिना इंजन की गाड़ी तो ऐसे ही चलेगी ना। देश में पनबिजली निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाने वाला सार्वजनिक क्षेत्र का एनएचपीसी लिमिटेड लगभग एक साल से प्रभारी चेयरमैन के भरोसे है। इसका प्रभाव चालू वित्तवर्ष की अप्रैल-जून तिमाही में देखने को मिला, जब इसका शुद्ध लाभ 15 प्रतिशत घटकर 670 करोड़ रुपये हो गया। एनएचपीसी की स्थापित क्षमता 5,100 मेगावाट से अधिक है। चालू वित्तवर्ष में कंपनी की कुल क्षमता में 1,200 मेगावाट का इजाफा करने का लक्ष्य निर्धारित है और 21,000 मेगावाट से अधिक क्षमता की परियोजनाएं क्रियान्वियन के विभिन्न चरणों में हैं। ऐसे में चेयरमैन की नियुक्ति के मामले में सरकार के अनिर्णय के कारण पनबिजली परियोजनाएं अधर में लटक सकती हैं या फिर अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाएंगे। यूनिट ट्रस्ट आफ इंडिया (यूटीआई) देश का एक महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थान है। सन् 1963 में संसद में पारित एक अध्यादेश के जरिए बने यूटीआई एक्ट के बाद अस्तित्व में आए इस वित्तीय संस्थान के अब तक के इतिहास में पहली बार इसके चेयरमैन का पद पिछले 19 महीनों से खाली है। यह पद श्री यूके सिन्हा को सेबी का चेयरमैन बनाए जाने के कारण रिक्त हुआ था। पर सरकार अब तक इस स्थान को नहीं भर पाई है। इससे यूटीआई का कामकाज प्रभावित है। इसे एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। आयकर विभाग ने लोगों को पैन कार्ड समय पर उपलब्ध कराने के लिए यूटीआई के साथ करार किया था। लेकिन 65 रुपए खर्च करके भी आयकर रिटर्न फाइल करने के इच्छुक लोगों को पैन कार्ड नहीं मिल पा रहा है। फार्म भरने के 15 दिनों के अंदर पैन कार्ड देने का यूटीआई का वादा सिर्फ कागजों तक सीमित रह गया है। यूटीआई अधिकारी खुद मानते हैं कि बड़ी तादाद में आवेदन पत्र आने के कारण 15 दिन की समय सीमा का वादा पूरा नहीं हो पा रहा है। कई अन्य स्वायत्त तथा सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में भी ऐसे उदाहरण भर पड़े हैं। नीतिगत मामलों में गठबंधन की मजबूरी समझी जा सकती है। मसलन, केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले साल 24 नवंबर को खुदरा कारोबार में एफडीआई को मंजूरी दे दी थी। पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अगुआई वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के विरोध के कारण सरकार इसे अमल में नहीं ला सकी है। इसी तरह सिविल एवियशन के क्षेत्र में भी विदेशी पूंजी निवेश का मामला अटक गया है। पर प्रशासकीय कार्यों का निष्पादन न कर पाना किस मजबूरी का हिस्सा है? सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों एनएचपीसी अथवा ओएनजीसी के चेयरमैन पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन करने से क्या किसी ने रोका? सच तो यह है कि यह सरकार अब प्रशासकीय कार्यों के मामलों में अनिर्णय की स्थिति में तो है ही, नीतिगत मामलों में भी खुद ही अंतर्विरोधों से घिरी हुई दिख रही है। इसका नजारा हाल ही देखने को मिला। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी की प्रतिष्ठा से जुड़े भूमि अधिग्रहण विधेयक को कांग्रेसी मंत्रियों के अंतर्विरोधों के कारण पुनर्विचार के लिए मंत्रिसमूह [जीओएम] के गठन का फैसला सुनाकर इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। यह विधेयक दूसरी बार जीओएम को सौंपा गया है। कहते हैं कि कैबिनेट की बैठक में विधेयक पर सरकार के पांच बड़े मंत्रियों शहरी विकास मंत्री कमलनाथ, सड़क परिवहन और राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्री सीपी जोशी, वाणिज्य व उद्योग मंत्री आनंद शर्मा, कारपोरेट मामले व ऊर्जा मंत्री वीरप्पा मोइली तथा नागरिक उड्डयन मंत्री रालोद अध्यक्ष अजित सिंह ने सख्त एतराज जताया। यूपीए-2 की सरकार एक तरफ भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों को लेकर बेदम होती दिख रही है। वहीं दूसरी तरफ आर्थिक मोर्चे पर भी उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं माना जा सकता। वित्तीय वर्ष 2011-12 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 4.6 फीसदी से बढ़कर 5.9 फीसदी हो गया। जबकि बजट में सकल घरेलू उत्पाद का आठ फीसदी से ज्यादा विकास की गुलाबी तस्वीर दिखाई गई थी। इन तमाम स्थितियों व परिस्थितियों के बीच कोयला खानों के आवंटन के सवाल पर इस पूरे सत्र में संसद में जिस तरह का नजारा रहा उसको देखते हुए हिंदी के विद्रोही कवि और गजलकार दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां प्रासंगिक लगती हैं, “अब तो इस तालाब का पानी बदल दो, ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।”