किशोर कुमार
समाजसेवी, गांधीवादी चिंतक व पत्रकारिता के युग पुरुष श्री सतीशचंद्र का हमारे बीच से उनका यूं चले जाना बहुत अखर रहा है। मैंने अपना गुरू और अभिभावक दोनों खोया है। अथाह दुख के इन पलों को व्यक्त करने के लिए हमारे पास फिलहाल कोई शब्द नहीं हैं।
सतीश बाबू के निधन से पत्रकारिता के एक युग का अंत हो गया है और इस खालीपन को भरना मुश्किल है। सतीश बाबू ने 1947 में झारखंड की धरती पर कदम रखा था। तब से वह लगातार देश औऱ प्रदेश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे। उन्होंने 'इंडियन नेशन' और 'आर्यावर्त' अखबारों में नौकरी की और धनबाद में 'आवाज' नामक साप्ताहिक अखबार निकाल रहे ब्रह्मदेव सिंह शर्मा के साथ मिलकर उसे दैनिक अखबार का स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने सन् 1982 में 'आवाज' से अलग होकर 'जनमत' नामक दैनिक अखबार निकाला। 50 वर्षों के पत्रकारीय जीवन में उन्होंने देश के शायद ही किसी पत्र-पत्रिका में न लिखा हो।
उनका मजदूर आंदोलन से भी नजदीकी रिश्ता था। कांतिभाई मेहता के साथ काफी काम किया। वर्षों इंटक का मुखपत्र “खान मजदूर” का संपादन किया। उनकी साहित्यिक कृतियों में कोयला मजदूरों की जिंदगी पर अनुसंधानपरक और मार्मिक उपन्यास 'वन पाथर' तथा 'काली माटी' को खूब सराहा गया। इन सभी कृतियों का प्रकाशन जनमत प्रकाशन ने किया था, जिसकी स्थापना खुद सतीश बाबू ने की थी। सतीश बाबू पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे। लेकिन कलम से उनका नाता अंत-अंत तक बन रहा। यादाश्त गजब की थी।
सतीश बाबू अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से अपने विरोधियों के भी श्रद्धेय रहे। कलम के सिपाही सतीश बाबू ने अपना फर्ज निभाते वक़्त कभी कोई समझौता नहीं किया। मुझे एक घटना याद है। धनबाद के धनसार इलाके में अवैध शराब पीने से पांच-छह लोगों की मौत हो गई थी। पत्रकार सतीश कुमार ने इस विषय पर जैसे ही स्टोरी की, आबकारी विभाग के तत्कालीन कमिश्नर को इसकी भनक लग गई। वे अखबार के प्रधानसंपादक सतीश बाबू से मिलकर स्टोरी रूकवाने भागे-भागे जनमत कार्यालय पहुंच गए। पर सतीश बाबू पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने कहा, “यह खबर सही है और प्रकाशित होगी। आप चाहें तो इसका खंडन भेज सकते हैं।“ कमिश्नर को निराश होकर लौटना पड़ा था। ऐसे एक नहीं, अनेक मामले हैं, जिसकी चर्चा हो तो मोटी किताब तैयार हो जाए
पुरानी पीढ़ी के धनबाद के लोग इस बात से वाकिफ हैं कि सतीश बाबू ने अविभाजित बिहार के दक्षिण और उत्तर बिहार को रेल यातायात से जोड़ने की मांग को लेकर इतना असरदार आंदोलन चलाया था कि तब के रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र को मौर्य एक्सप्रेस चलाने की घोषणा करके आंदोलन समाप्त करना पड़ा था। खास बात यह है कि ललित बाबू से सतीश बाबू के व्यक्तिगत संबंध थे और उन्होंने जनहित में इस संबंध को दरकिनार करके आंदोलन का सहारा लिया था।
उन्होंने कहा है कि मीडिया पर किसी भी आक्रमण के विरूद्ध सदैव योद्धा की तरह खड़े रहे। धनबाद ही नहीं, पूरे झारखँड के पत्रकार भूले नहीं हैं कि 1989 में पुलिस प्रशासन द्वारा पत्रकारों पर दमनात्मक कार्रवाइयों के विरूद्ध सतीश बाबू किस मजबूती से खड़े हुए थे। ललित नारायण मिश्रा से दोस्ती के कारण उनके छोटे भाई तथा बिहार के मुख्यमंत्री रहे डा.जगन्नाथ मिश्र उनका बड़ा सम्मान करते थे। वे उन्हें बड़े भाई की तरह ही मानते थे। लेकिन जब मुख्यमंत्री के रूप में डा.मिश्रा ने प्रेस के विरूद्ध विधेयक लाया तो सतीश बाबू इसके विरूंद्ध आवाज बुलंद करने वालों की अगली कतार में थे।
सतीश बाबू ने हमेशा व्यक्तिगत संबंधों को महत्व दिया और सत्ता प्रतिष्ठान के चकाचौंध से दूर ही रहे। एक बार की घटना याद है। पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर धनबाद दौरे पर थे। उन्होंने सतीश बाबू को याद किया और कहा कि वे उनके घर पर आना चाहते हैं। सतीश बाबू ने कहा, “आपका घर है, आइए। पर व्यक्तिगत हैसियत से।“ कर्पूरी ठाकुर ने ऐसा ही किया। वे अकेले ही गाड़ी से आए और सर्किट हाउस के बदले सतीश बाबू के घर में रहना पसंद किया।
सतीश बाबू नारियल के समान थे, ऊपर से कठोर पर भीतर से कोमल और उज्जवल। वे अक्सर बताते कि उन्होंने कैसे संघर्ष करके और बिना किसी औपचारिक शिक्षा के पत्रकारिता और सामाजिक क्षेत्र में अपनी जगह बनाई। इसलिए वे सदैव कर्म को ही पूजा मानते रहे और युवाओं को भी ऐसा ही करने के लिए प्रेरित भी करते थे। असहायों की पीड़ा उनसे देखी नहीं जाती थी। जनमत के दिनों में भी गुमशुदे की तलाश जैसे मैटर क्लासिफायड विज्ञापन की श्रेणी में आते थे। अक्सर ऐसा होता था कि कोई गरीब महिला आ जाती और कहती कि उसका आदमी बाहर गया था, लौटकर नहीं आया या बेटा मिल नहीं रहा, अखबार में छपवा दीजिए। वह कर्ज लेकर भी पैसे देने को तैयार रहती। पर सतीश बाबू का दिल पिघल जाता और वे मुफ्त विज्ञापन प्रकाशित करवा देते थे।
गरीब छात्रों की फीस माफ करने के लिए स्कूल-कालेजों के प्राचार्यों को अक्सर चिट्ठियां लिखा करते थे और उन चिट्ठियों का सम्मान भी होता था। स्थिति ऐसी थी कि अनेक लोग आते और कहते कि सर
आपकी कृपा से ही मैं पढ़ पाया और अब फलां जगह काम कर रहा हूं। कोई बीमार हो अथवा लड़की की शादी में मदद की जरूरत हो, वे सदैव तैयार रहते थे। बात ज्यादा पुरानी नहीं है। यशवंत सिन्हा केंद्रीय मंत्री की हैसियत से धनबाद आए थे। उन्हें न्यू टाऊनहाल में चित्रगुप्त महापरिवार के एक कार्यक्रम में भाग लेना था। महापरिवार के कुछ वरीय पदाधिकारियों ने सतीश बाबू से भी उस कार्यक्रम में भाग लेने का अनुरोध किया। पर सतीश बाबू ने एक शर्त्त रख दी। कहा, “यदि उस कार्यक्रम में यह शपथ दिलाई जाएगी कि सभी अपने लड़कों की शादी बिना तिलक-दहेज के करेंगे, तभी वे शिरकत करेंगे।“
वे अखबार के कर्मचारी बैजू को बेहद प्यार करते थे। बैजू ने भी अंत तक उनका साथ नहीं छोड़ा। कुछ महीने पहले ही सतीश बाबू ने मुझे एक जिम्मेदारी सौंपी कि वे रहें न रहें, लेकिन मैं बैजू के बेटे को नौकरी दिलाने में हर संभव मदद जरूर करूंगा। आज सतीश बाबू इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन उनका यह आदेश सिर मत्थे है। पत्रकारिता के साथ ही सामाजिक क्षेत्र में सतीश बाबू के योगदान को सदा याद किया जाएगा।
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