देश की भ्रष्ट एवं अदूरदर्शी नौकरशाही औऱ विकास का एजेंडा पीछे छोड़ चुके राजनीति दलों के कारण महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) फ्लाप कर गई। एक तरफ जिन उद्देश्यों से इस योजना का श्रीगणेश किया गया था, वे पूरे नहीं हो सके। वहीं दूसरी ओर पग-पग पर व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण सरकारी धन का बंदरबांट हुआ। नतीजतन कागजी तौर पर भले ३.०२ करोड़ परिवारों को रोजगार मुहैय्या कराने का दावा किया गया है। पर हकीकत इसके उलट है। मिसाल के तौर पर झारखँड में कुल १ ३९७३८ योजनाएं ली गई थीं। पर उनमें से ३८६२७ योजनाएं ही पूरी की जा सकी हैं। जो योजनाएं पूरी हैं, उनमें से अनेक में घोटालों की कहानियां भरी पड़ी हैं। सामाजिक अंकेक्षण से इसका खुलासा हो चुका है।
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने इस योजना में हो रही गड़बड़ियों की बात स्वीकारते हुए कहा था कि अब मंत्रालय इस पर पूरी नजर रखेगा। इस बात की कोशिश की जाएगी कि वित्त वर्ष 2008-09 में यह पूरी तरह से समस्याओं से मुक्त हो जाए। 'हम इस बात से सहमत हैं कि परियोजना को लागू करने में ढेर सारी समस्याएं हैं। ये समस्याएं सामान्यतया स्थानीय स्तर पर आती हैं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए हम आवश्यक कदम उठाएंगे, जिससे इसके उद्देश्यों को पूरा किया जा सके।' लेकिन मंत्री महोदय का यह वायदा अब तक महज कागजी ही साबित हुआ है।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (नरेगा) का उद्देश्य साल में 100 दिन का रोज़गार उपलब्ध कराकर गैर कृषि अवधि के दौरान अकुशल ग्रामीणों का गाँवों से पलायन रोकना है। इसके माध्यम से जल संरक्षण, भूमि विकस और सूखे की स्थिति का सामना किया जाना है। प्रधानमंत्री डॉ। मनमोहन सिंह ने इस कार्यक्रम को 2 फरवरी, 2006 को प्रारंभ किया था।
सरकारी दिशा-निर्देशों के मुताबिक ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लागू होने से पूर्व ही परिवारों का पंजीकरण, जॉब कार्ड तथा कराये जाने वाले कार्यों की रूप रेखा तैयार कर लिया जाना था, जिससे कि योजना के क्रियान्वयन में अनावश्यक विलंब न हो। साथ ही इस योजना के प्रभावी क्रियान्वयन से ग्रामीण क्षेत्रें से होने वाले पलायन, विकास कार्यों की मॉनिटरिंग तथा प्राथमिकता का निर्धारण बेहतर ढंग से किया जा सके। इस योजना का यदि सफलतापूर्वक संचालन किया गया होता तो आज देश की तसवीर बदलती हुई दिखती।
लेकिन भ्रष्ट और अदूरदर्शी नौकरशाही ने इस मह्त्वाकांक्षी योजना पर पानी फेर दिया है। जाहिर है कि इसके लिए संबंधित राज्यों के राजनीतिज्ञ भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। लेकिन इस योजना की जितनी उपलब्धियां हैं, उन्हें भुनाने के लिए सारे राजनीतिक दलों में होड़ मची है। उन्हें कौन समझाए कि श्रेय लेने की यह होड़ उनके खिलाफ जा सकती है। उन्हें श्रेय तो तब मिलता जब उनके कार्यकर्ता गांवों में निकले होते, लोगों के जॉब कार्ड बनवाए होते और उन्हें काम दिलाते तथा उनकी न्यूनतम मजदूरी के लिए संघर्ष किए होते।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना भौतिक उपलब्धियों के मामले में किस तरह विफल हुई, इसकी चर्चा की जा चुकी है। यहां भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक [सीएजी] की उस रिपोर्ट की चर्चा की जा रही है, जिससे इस योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया गया है। सीएजी ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना [नरेगा] में मस्टर रोल में गड़बड़ी, मजदूरों को पूरा मेहनताना न मिलने, बेरोजगारी भत्ता न मिलने, फंड का पूरा इस्तेमाल न होने, समय पर फंड न रिलीज होने, कामकाज की निगरानी न किए जाने आदि के अनेक मामलों का पता लगाया है।
सीएजी ने संसद में पेश वर्ष 2007 मार्च की रिपोर्ट में इन खामियों और गड़बड़ियों का खुलासा किया है। सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष मार्च तक नरेगा के फंड के केवल 73 प्रतिशत हिस्से का ही इस्तेमाल हो पाया यानि करीब 3.5 हजार करोड़ रुपये की राशि खर्च ही नहीं हो पाई।
रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2007 तक केंद्र और राज्य सरकार द्वारा नरेगा के लिए बारह हजार चौहत्तर करोड़ रुपये की राशि मुहैया कराई गई पर जिसमें से केवल 8823 करोड़ रुपये की राशि ही खर्च हो पाई। रिपोर्ट के अनुसार सैंपल सर्वेक्षण से पता चला है कि 18 राज्यों की 269 ग्राम पंचायतों में मस्टर रोल में मजदूरों की पहचान संख्या ही नहीं थी। बारह राज्यों की 134 ग्राम पंचायतों में मस्टर रोल में मजदूरों के नाम, उनकी उपस्थिति- अनुपस्थिति की तथा मेहनताना की जानकारी आदि नहीं थी। 15 राज्यों की 246 ग्राम पंचायतों में मस्टर रोल की कापी सार्वजनिक रूप से जांच के लिए उपलब्ध नहीं थी।
रिपोर्ट के अनुसार 19 राज्यों में नरेगा की राज्य स्तरीय निगरानी ही नहीं हुई या उसे दर्ज ही नहीं किया गया। इन राज्यों के 43 जिलों में जिला स्तर पर केवल दस प्रतिशत ही निगरानी हुई। 22 राज्यों के 105 जिलों में सौ प्रतिशत निगरानी नहीं हुई। रिपोर्ट के अनुसार 20 राज्यों की 354 ग्राम पंचायतों में तो आडिट के लिए छह महीने में ग्राम सभाओं की एक बार भी बैठक भी नहीं हुई। 21 राज्यों की 376 ग्राम पंचायतों में तो नरेगा से संबंधित दस्तावेज, जानकारी और आंकड़े सार्वज्निक रूप से नहीं उपलब्ध कराए गए।
रिपोर्ट के अनुसार 21 राज्यों की 282 ग्राम पंचायतों में काम के लिए मजदूरों ने जो आवेदन दिए, उसकी पावती उन्हें नहीं दी गई, 19 राज्यों की 329 ग्राम पंचायतों में रोजगार रजिस्टर ही नहीं थे। 17 राज्यों के 58 प्रखंडों में मजदूरों को बेरोजगारी भत्ता ही नहीं मिला। रिपोर्ट के अनुसार 12 राज्यों की 79 ग्राम पंचायतों में सात घंटे काम करने के बाद मजदूरों को कम घंटों का मेहनताना दिया गया। 17 राज्यों की 213 ग्राम पंचायतों को समय पर मेहनताना नहीं दिया गया और न ही कोई मुआवजा दिया गया।
सीएजी ने संसद में पेश वर्ष 2007 मार्च की रिपोर्ट में इन खामियों और गड़बड़ियों का खुलासा किया है। सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष मार्च तक नरेगा के फंड के केवल 73 प्रतिशत हिस्से का ही इस्तेमाल हो पाया यानि करीब 3.5 हजार करोड़ रुपये की राशि खर्च ही नहीं हो पाई।
रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2007 तक केंद्र और राज्य सरकार द्वारा नरेगा के लिए बारह हजार चौहत्तर करोड़ रुपये की राशि मुहैया कराई गई पर जिसमें से केवल 8823 करोड़ रुपये की राशि ही खर्च हो पाई। रिपोर्ट के अनुसार सैंपल सर्वेक्षण से पता चला है कि 18 राज्यों की 269 ग्राम पंचायतों में मस्टर रोल में मजदूरों की पहचान संख्या ही नहीं थी। बारह राज्यों की 134 ग्राम पंचायतों में मस्टर रोल में मजदूरों के नाम, उनकी उपस्थिति- अनुपस्थिति की तथा मेहनताना की जानकारी आदि नहीं थी। 15 राज्यों की 246 ग्राम पंचायतों में मस्टर रोल की कापी सार्वजनिक रूप से जांच के लिए उपलब्ध नहीं थी।
रिपोर्ट के अनुसार 19 राज्यों में नरेगा की राज्य स्तरीय निगरानी ही नहीं हुई या उसे दर्ज ही नहीं किया गया। इन राज्यों के 43 जिलों में जिला स्तर पर केवल दस प्रतिशत ही निगरानी हुई। 22 राज्यों के 105 जिलों में सौ प्रतिशत निगरानी नहीं हुई। रिपोर्ट के अनुसार 20 राज्यों की 354 ग्राम पंचायतों में तो आडिट के लिए छह महीने में ग्राम सभाओं की एक बार भी बैठक भी नहीं हुई। 21 राज्यों की 376 ग्राम पंचायतों में तो नरेगा से संबंधित दस्तावेज, जानकारी और आंकड़े सार्वज्निक रूप से नहीं उपलब्ध कराए गए।
रिपोर्ट के अनुसार 21 राज्यों की 282 ग्राम पंचायतों में काम के लिए मजदूरों ने जो आवेदन दिए, उसकी पावती उन्हें नहीं दी गई, 19 राज्यों की 329 ग्राम पंचायतों में रोजगार रजिस्टर ही नहीं थे। 17 राज्यों के 58 प्रखंडों में मजदूरों को बेरोजगारी भत्ता ही नहीं मिला। रिपोर्ट के अनुसार 12 राज्यों की 79 ग्राम पंचायतों में सात घंटे काम करने के बाद मजदूरों को कम घंटों का मेहनताना दिया गया। 17 राज्यों की 213 ग्राम पंचायतों को समय पर मेहनताना नहीं दिया गया और न ही कोई मुआवजा दिया गया।
स्थानीय स्तर पर तो इस योजना में बड़े-बड़े घपले उजागर हुए हैं। यदि घपलों की बात छोड़ दें तो इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लोकलुभावन है। तभी रोजगार गारंटी अधिनियम को पास कराने के सवाल पर संसद में सभी दलों की आमराय बनी थी। यदि यह योजना ईमानदारी से जमीन पर उतारी गई होती तो वास्तविक अर्थों मे ग्रामीणों को सौ दिन रोजगार देने का सपना साकार हुआ होता और देश का विकास भी होता। लेकिन विगत वर्षो में इस योजना को जिस तरह क्रियान्वित किया गया, उसने साबित होता है कि केंद्र के साथ ही राज्य सरकारों और प्रशासनिक तंत्र की उदासीनता के चलते इसकी आत्मा को ही खत्म करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।
वरना ऐसी कौन-सी वजह थी कि स्पष्ट दिशा-निर्देश और धन की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद इस योजना के लिए अलग से कर्मचारियों की बहाली नहीं की गई? रोजगार गारंटी कानून के मुताबिक इस योजना को सफल बनाने के लिए प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक कर्मचारी को बहाल किया जाना था, जिसका पदनाम ग्राम रोजगार सेवक होता। पर इस पद को खाली छोड़ दिया जाना इस बात का परिचायक है कि रोजगार गारंटी को लागू करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति का घोर अभाव है।
वरना ऐसी कौन-सी वजह थी कि स्पष्ट दिशा-निर्देश और धन की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद इस योजना के लिए अलग से कर्मचारियों की बहाली नहीं की गई? रोजगार गारंटी कानून के मुताबिक इस योजना को सफल बनाने के लिए प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक कर्मचारी को बहाल किया जाना था, जिसका पदनाम ग्राम रोजगार सेवक होता। पर इस पद को खाली छोड़ दिया जाना इस बात का परिचायक है कि रोजगार गारंटी को लागू करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति का घोर अभाव है।
चुनाव की आहट के साथ ही सभी राजनीतिक पार्टियां मुद्दे तलाशने में जुटी हुईं हैं। लेकिन रोजगार गारंटी से जुड़े इस अहम मुद्दे को विपक्षी दल भी ईमानदारी से उठाने के मूड में नहीं दिखतें। यह चिंता की बात है। रही बात मीडिया की तो ज्यादातर मीडिया ने बाजारवाद के चक्कर में ग्रामीण विकास के मुद्दों को लगभग छोड़ ही दिया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए ऐसे मुद्दे महत्वपूर्ण इसलिए नहीं होते क्योंकि उनसे टीआरपी का कोई संबंध नहीं होता है।
हाल ही योजना आगोग की एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी, जिसमें तथ्यों के आधार पर इस बात का खुलासा किया गया था कि देश के लगभग अस्सी फीसदी लोगों की रोज की आमदनी बीस रूपए से ज्यादा नहीं होती है। ऐसे में ग्रामीण भारत के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना आशा की किरण थी। लेकिन यह आशा निराशा में बदल जाने के बाद रोजगार के घटते अवसर और आसमान छूती महंगाई के बीच आम आदमी तो मरेगा ही। लेकिन यह बात राजनीतिज्ञों से लेकर मीडिया तक के एजेंडे में नहीं है तो भूख से तड़पते आम आदमी के लिए आखिर क्या रास्ता बच जाता है?
4 comments:
लक्ष्य को तो ये योज़नाये प्राप्त हुयी | लक्ष्य यह था कि सरकारी कारिंदे और नेता मिल बैठ के खाए | और समय - समय पर वेतन आयोग से भी पगार बढाने की भी गुजारिश करे इस तरह का काम कराने के बाद |
देस की यही विडंबना है
नरेगा तक का फायदा प्रधान खुद उठा रहे हैं।
अपने परिवार के लोगों से काम करा रहे हैं और खुद ही पैसा खा रहे हैं। असली बेराजगार घर बैठे किस्मत का रोना रो रहे हैं
अफसोसजनक!!
ऐसे लेख प्रिंट मीडिया में भी आने चाहिए. यह सही है की मीडिया विकास से सम्बंधित मामलो में उदासीन है और उसे मसालेदार खबरें चाहिए, बावजूद इसके प्रयास करने में कोई हर्ज़ नहीं है.
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