Tuesday, July 13, 2010

स्वास्थ्य बीमा पर उदारीकरण का साइड इफेक्ट

किशोर कुमार

देश के अनेक शहरों के कोई डेढ़ सौ अस्पतालों में मेडिक्लेम की कैशलेस सुविधा नहीं मिलेंगी। स्वास्थ्य बीमा करने वाली सरकारी और गैर सरकारी साधारण बीमा कंपनियों ने बीमाधारकों को विश्वास में लिए बिना उन्हें दी जाने वाली इस महत्वपूर्ण सुविधा को चुपचाप वापस लेकर सबको सकते में डाल दिया है। संवैधानिक संस्था से निर्देशित होने वाली और जनता के प्रति उत्तरदायी निजी क्षेत्र की बड़ी कंपनियों के साथ ही सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र की सामान्य बीमा कंपनियां ऐसा गैर जिम्मेदारना और जन विरोधी कदम उठाकर बीमाधारकों के विश्वास को एक झटके में तोड़ देंगी, इसकी किसी को कल्पना तक नहीं थी।
यह सुनने में छोटी बात लग सकती है। लेकिन स्वास्थ्य बीमा कराकर निश्चिंत हो बैठे उन लोगों के नब्ज को टटोलिए जो अचानक संकट में फंसकर अस्पताल पहुंच चुके हैं और अब धन की कमी इलाज में बाधक बन गई है। तब पता चलेगा कि साधारण बीमा कंपनियों का यह छोटा सा कदम लाखों बीमाकृत लोगों के लिए किस स्तर तक परेशानी का सबब बन चुका है। वैसे भी पॉलिसी अवधि में ऐसा फैसला उपभोक्ताओं के अधिकारों का उल्लंघन है।
अस्पताल के मनमाने बिलिंग से परेशान होकर 18 कंपनियों ने स्वास्थ्य बीमा की कैशलेस सुविधा पर रोक लगाए जाने की जानकारी आम लोगों को 10 जुलाई को एक अंग्रेजी अखबार के जरिए मिली। हुआ यूं कि जब बीमाकृत मरीजों के परिजनों ने अपने अपनी बीमा कंपनी द्वारा बहाल टीपीए को कैशलेस सुविधा के लिए अर्जी भेजी, तब जबाव में बताया गया कि यह सुविधा 1 जुलाई 2010 से ही बंद की जा चुकी है। ऐसा एक दो नहीं, बल्कि पांच सौ से ज्यादा मरीजों के साथ हुआ। तब बात फैलकर अखबार तक पहुंची। साधारण बीमा कंपनियों ने उक्त अखबार के पत्रकार द्वारा पूछे जाने पर स्वीकारा कि कैशलेस सुविधा बंद की जा चुकी है। हैरानी इस बात की है कि साधारण बीमा कंपनियों द्वारा जनता खासकर मरीजों से जुड़े इतने बड़े फैसले से आज तक बीमाकृत व्यक्तियों को अवगत नहीं कराया गया है। यहां तक कि बीमा एजेंटों को भी इस फैसले की खबर अखबार से ही मिली है।
अब 150 अस्पतालों में इलाज के लिए मरीजों को अपनी जेब से पैसा देना होगा। हालांकि बाद में इंश्योरेंस कंपनी के पास इलाज पर खर्चे हुए पैसों का क्लेम किया जा सकता है, लेकिन पूरा पैसा मिल जाए इसकी गारंटी नहीं है। दरअसल इस सुविधा को बंद करने के पीछे का कारण यह बताया जा रहा है कि कैशलेस सुविधा के कारण अस्पतालों द्वारा मनमानी दर पर बिल वसूले जाने के कारण बीमा कंपनियों को सालाना तीन सौ करोड़ रूपए का घाटा हो रहा है। इन कंपनियों को प्रीमियम से 6000 करोड़ रूपए आता है और अस्पतालों के क्लेम पर कोई 7500 सौ करोड़ हो जाता है। यानी सालाना 1500 करोड़ रूपए का घाटा। इस घाटे में दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अस्पतालों की बड़ी भूमिका होती है।
यह सच है कि सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में मध्य वर्ग भी निजी अस्पतालों की ओर रूख किए हुए हैं। इसका बेजा लाभ महानगरों के वैसे अस्पताल उठा रहे हैं, जो एक निश्चित संख्या में गरीब मरीजों का इलाज करने का आश्वासन देकर सस्ती दरों पर जमीन और करों का लाभ जैसी अनेक सरकारी सुविधाएं लिए हुए हैं। चिकित्सकों की छवि आम जनता में आज भी भगवान जैसा ही है। पर अस्पताल प्रबंधकों की नजर में ये चिकित्सक मार्केटिंग के अधिकारी पहले हैं। उन्हें लक्ष्य दिया हुआ है कि हर तिमाही उन्हें कितना बिजनेस देना है। दूसरे शब्दों में मरीजों से कितना धन उगाहना है। इसके एवज में इन पृथ्वी के इन “भगवानों” को मोटी तनख्वाह मिलती है। ऐसे में चिकित्सकों की नजर में मरीजों की स्थिति एक क्लाइंट से ज्यादा क्या हो सकती है। मरीजों के अस्पताल पहुंचते ही बात का बतंगड़ बनाकर डराने और फिर अनावश्यक जांचों का सिलसिला शुरू हो जाता है। लंबे समय तक अस्पताल में रखकर बेड चार्ज से लेकर फीस तक के बहाने मोटी रकम वसूली जाती है।
साधारण बीमा कंपनियों का यह कहना सही है कि महानगरों में ओपन हार्ट सर्जरी पर जहां डेढ़ से पौने दो लाख रूपए तक खर्च होने चाहिए। वहीं अस्पतालों द्वारा कम से कम ढ़ाई लाख रूपए का बिल बनाया जाता है। इसी तरह प्रसव पर अधिकतम बीस हजार रूपए का बिल होना चाहिए। पर बिल बनाया जाता है चालीस हजार रूपए से भी ज्यादा का। एक राष्ट्रीय दैनिक के एसोसिएट एडीटर के बेटे को बुखार हुआ था। तब चिकनगुनिया का शोर था। संपादक महोदय घबरा कर दिल्ली के एक निजी अस्पताल में जैसे ही गए अंतहीन जांच का सिलसिला शुरू हुआ और तीन दिनों में 67 हजार रूपए का बिल बन गया। फिर भी बात नहीं बनी तो राम मनोहर लोहिया अस्पताल गए। वहां चिकित्सक पारासिटामोल देकर सब कुछ सामान्य कर दिया।
जो लोग भी निजी अस्तालों की हकीकत जानते हैं उन्हें बीमा कंपनियों की शिकायतों से मतभेद नहीं हो सकता। लेकिन निजी अस्पतालों का यह प्रैक्टिस कोई आज से तो शुरू हुआ नहीं है। तभी तो जैसा कि बीमा कंपनियों का दावा है कि वे कई वर्षों से घाटे में हैं। लेकिन यहां सवाल यह है कि बीमाकृत व्यक्तियों को कोई सुविधा बताकर अपने प्रोडक्ट बेचने वाली कंपनियों को उस सुविधा से वंचित कर दिया जाना कितना सही है? भारत में स्वास्थ्य बीमा की मौजूदा विकास दर 9.3 प्रतिशत है। भारतीय विनियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीए) द्वारा जारी हैंडबुक ऑन इंडियन इंश्योरेंस स्टैटिस्टिक्स के मुताबिक स्वास्थ्य बीमा के मामले में साधारण बीमा कंपनियों को भले घाटा हो रहा है। लेकिन उसके अन्य उत्पादों यथा वाहन बीमा, अग्नि बीमा आदि में काफी फायदा है। यही वजह है कि ये बीमा कंपनियां स्वास्थ्य बीमा में घाटे के बावजदू कुल मिलाकर फायदे में हैं।
उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक दावों का भुगतान करने में सार्वजनिक क्षेत्र की साधारण बीमा कंपनियों पर बोझ निजी बीमा कंपनियों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। यही नहीं, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का क्लेम सेटलमेंट रिकॉर्ड भी ज्यादा बेहतर है। आईआरडीए की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक सरकारी साधारण बीमा कंपनियों की शुद्ध प्रीमियम आय का 80 फीसदी से अधिक हिस्सा दावों का भुगतान में चला जाता है। जबकि निजी कंपनियां अपनी प्रीमियम आय का सिर्फ 50 फीसदी ही दावों के भुगतान में खर्च पाती हैं। जाहिर है कि कोई एक उत्पाद घाटे का सौदा होने के बावजूद इन कंपनियों के लिए खतरे की कोई बात नहीं है।

यह सही है कि उदारीकरण के इस दौर में सामाजिक सरोकारों की बात काफी पीछे चली गई है। इस पर बहस की पूरी गुंजाइश है और होनी भी चाहिए। कांग्रेस जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी का नाम लेकर वोट मांगती है और उनकी नीतियों का बखान करके जनता का वास्तविक हमदर्द होने का दावा करती है। लेकिन व्यवहार रूप में उन नेताओं के सामाजिक सरोकारों वाली नीतियों को बिल्कुल भूल गई है। वरना साधारण बीमा कंपनियों ने जैसे ही बीमाकृत व्यक्तियों के साथ वादाखिलाफी की, वह तुरंत इसके विरोध में सामने आ सकती थी। वह अपनी सरकार पर दबाव बना सकती थी कि एक उत्पाद के घाटे में होने के बावजूद साधारण बीमा कंपनियां मुनाफे में हैं, इसलिए फिलहाल जनता को मिलने वाली कैशलेस सुविधा को जारी रखा जाना चाहिए। सरकार को भी साधारण बीमा कंपनियों की शिकायतों के निबटारे के लिए उपाय निकालना चाहिए था। ताकि उपभोक्ता अधिकारों का हनन नहीं हो। पर आर्थिक उदारीकरण के ध्वजवाहक सरकार की सारी चिंता अपनी अर्थ-व्यवस्था को विदेशियों के लिए खोलने और सामाजिक सरोकारों वाले कामों से अपना पल्ला झाड़ने तक सीमित रह गया है।
सरकार न तो बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं पर ध्यान दे रही है और न ही मुक्त हस्त से सुविधाएं मुहैय्या कराने के एवज में निजी अस्पतालों पर मरीजों की तिजोरी खाली कराने की कवायद को रोकने के लिए दबाव बना पा रही है। इधर साधारण बीमा कंपनियां व्यापार के सामान्य धर्म का भी निर्हन नहीं कर पा रही हैं। उन्हें जनता के दर्द में भागीदार नहीं होना है तो व्यापार के लिहाज से ही अपने घाटे पाटने के लिए वैकल्पिक इंतजाम कर सकती है। वह अपने नए ग्राहकों के लिए प्रीमियम की दर बढ़ा सकती है या सरकार पर दबाव बना सकती है कि सीजीएचएस वाली दरें साधारण बीमा कंपनियों के लिए भी लागू करवाई जाए।

यदि कुछ मरीज भी अपने फायदे के लिए अस्पतालों के गुनाहों में शामिल हैं तो साधारण बीमा कंपनियां कह सकती हैं कि जो बीमाकृत व्यक्ति एक निश्चित मात्रा में अपना अंशदान देने को तैयार होंगे, उन्हें आसानी से कैशलेस सुविधा दी जाएगी। ऐसा होने से संकट की घड़ी में बीमाकृत मरीजों को तात्कालिक तौर पर धन की कमी तो इलाज में आड़े नहीं आएगी। वैसे सबसे अच्छी नीति तो यह होगी कि सरकार स्वास्थ्य बीमा कराने वालों के लिए भी अस्पतालों से वैसा ही समझौता कराए जैसा सीजीएचएस कार्डधारकों के लिए है। सीजीएचएस कार्डधारकों के लिए अगल-अलग बीमारियों और जांचों के लिए दरें तय हैं। जो अस्पताल सीजीएचएस से संबद्ध हैं, वे सरकार द्वारा निर्धारित दरों पर ही इलाज करते हैं। पर इतना कौन सोचे। उपभोक्ता अधिकारों का हनन होता है तो हो। अंधेरगर्दी जो है। लगता है कि सरकार के जन विरोधी उदारीकरण का दंश भोगते रहना जनता की नियति बन गई है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं)

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